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पर्यावरण संरक्षण

जैविक खेती पर इस संस्थान में मिलता है मुफ्त प्रशिक्षण, घर बैठे शुरू हो जाती है कमाई

जैविक खेती पर इस संस्थान में मिलता है मुफ्त प्रशिक्षण, घर बैठे शुरू हो जाती है कमाई

जालंधर में नूरमहल के दिव्य ज्योति जागृति संस्थान (Divya Jyoti Jagrati Sansthan)ने जैविक खेती की प्रेरणा एवं प्रशिक्षण के पुनीत कार्य में मिसाल कायम की है। बीते 15 सालों से पर्यावरण संरक्षण की दिशा में रत इस संस्थान ने कैसे अपने मिशन को दिशा दी है, कैसे यहां किसानों को प्रशिक्षित किया जाता है, कैसे सेवादार इसमें हाथ बंटाते हैं जानिये।

सफलता की कहानी -

जैविक खेती के मामले में आदर्श नूरमहल के दिव्य ज्योति जागृति संस्थान में जनजागृति एवं प्रशिक्षण की शुरुआत कुल 50 एकड़ की भूमि से हुई थी। अब 300 एकड़ जमीन पर जैविक खेती की जा रही है। अनाज की बंपर पैदावार के लिए आदर्श रही पंजाब की मिट्टी, खेती में व्यापक एवं अनियंत्रित तरीके से हो रहे रासायनिक खाद और कीटनाशकों के इस्तेमाल से लगातार उपजाऊ क्षमता खो रही है। जालंधर के नूरमहल स्थित दिव्य ज्योति जागृति संस्थान ने इस समस्या के समाधान की दिशा में आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया है।

गौसेवा एवं प्रेरणा -

संस्थान में गोसेवा के साथ-साथ पिछले 15 सालों से किसानों को जैविक खेती के लाभ बताकर प्रेरित करने के साथ ही प्रशिक्षित किया जा रहा है। संस्थान की सफलता का प्रमाण यही है कि साल 2007 में 50 एकड़ भूमि पर शुरू की गई जैविक कृषि आधारित खेती का विस्तार अब 300 एकड़ से भी ज्यादा ऊर्जावान जमीन के रूप में हो गया है। यहां की जा रही जैविक खेती को पर्यावरण संवर्धन की दिशा में मिसाल माना जाता है। ये भी पढ़ें: देश में प्राकृतिक खेती को बढ़ावा, 30 फीसदी जमीन पर नेचुरल फार्मिंग की व्यवस्था

सेवादार करते हैं खेती -

संस्थान के सेवादार ही यहां खेती-किसानी का काम संभालते हैं। किसान एवं पर्यावरण के प्रति लगाव रखने वालों को संस्थान में विशेष कैंप की मदद से प्रशिक्षित किया जाता है। गौरतलब है कि गौसेवा, प्रशिक्षण के रूप में जनसेवा एवं जैविक कृषि के प्रसार के लिए प्रेरित कर संस्थान प्रकृति संवर्धन एवं स्वस्थ समाज के निर्माण में अतुलनीय योगदान प्रदान कर रहा है।

रासायनिक खाद के नुकसान -

संस्थान के सेवादार शिविरों में इस बारे में जागरूक करते हैं कि रासायनिक खाद व कीटनाशक से लोग किस तरह असाध्य बीमारियों की चपेट में आते हैं। इससे होने वाली शुगर असंतुलन, ब्लड प्रेशर, जोड़ दर्द व कैंसर जैसी बीमारियों के बारे में लोगों को शिविर में सावधान किया जाता है। ये भी पढ़ें: जैविक खेती में किसानों का ज्यादा रुझान : गोबर की भी होगी बुकिंग यहां लोगों की इस जिज्ञासा का भी समाधान किया जाता है कि जैविक खेती के कितने सारे फायदे हैं। जैविक कृषि विधि से संस्थान गेहूं, धान, दाल, तेल बीज, हल्दी, शिमला मिर्च, लाल मिर्च, कद्दू, अरबी की खेती कर रहा है। साथ ही यहां फल एवं औषधीय उपयोग के पौधे भी तैयार किए जाते हैं।

गोमूत्र निर्मित देसी कीटनाशक के फायदे -

संस्थान के सेवादार फसल को खरपतवार और अन्य नुकसान पहुंचाने वाले कीड़ों से बचाने के लिए खास तौर से तैयार देसी कीटनाशक का प्रयोग करते हैं। इस स्पेशल कीटनाशक में भांग, नीम, आक, गोमूत्र, धतूरा, लाल मिर्च, खट्टी लस्सी, फिटकरी मिश्रण शामिल रहता है। इसका घोल तैयार किया जाता है। फसल की पैदावार बढ़ाने के लिए जैविक कृषि के इस स्पेशल स्प्रे का इस्तेमाल समय-समय पर किया जाता है। ये भी पढ़ें: गाय के गोबर से बन रहे सीमेंट और ईंट, घर बनाकर किसान कर रहा लाखों की कमाई

जैविक उत्पाद का अच्छा बाजार -

जैविक उत्पादों की बिक्री में आसानी होती है, जबकि इसका दाम भी अच्छा मिल जाता है। इस कारण संस्थान में प्रशिक्षित कई किसान जैविक कृषि को आदर्श मान अब अपना चुके हैं। जैविक कृषि आधारित उत्पादों की डिमांड इतनी है कि, लोग घर पर आकर फसल एवं उत्पाद खरीद लेते हैं। इससे उत्पादक कृषक को मंडी व अन्य जगहों पर नहीं जाना पड़ता।

पृथक मंडी की दरकार -

यहां कार्यरत सेवादारों की सलाह है कि जैविक कृषि को सहारा देने के लिए सरकार को जैविक कृषि आधारित उत्पादों के लिए या तो अलग मंडी बनाना चाहिए या फिर मंडी में ही विशिष्ट व्यवस्था के तहत इसके प्रसार के लिए खास प्रबंध किए जाने चाहिए। ये भी पढ़ें: एशिया की सबसे बड़ी कृषि मंडी भारत में बनेगी, कई राज्यों के किसानों को मिलेगा फायदा संस्थान की खास बात यह है कि, प्रशिक्षण व रहने-खाने की सुविधा यहां मुफ्त प्रदान की जाती है। संस्थान की 50 एकड़ भूमि पर सब्जियां जबकि 250 एकड़ जमीन पर अन्य फसलों को उगाया जाता है।

कथा, प्रवचन के साथ आधुनिक मीडिया -

अधिक से अधिक लोगों तक जैविक कृषि की जरूरत, उसके तरीकों एवं लाभ आदि के बारे में उपयोगी जानकारी पहुंचाने के लिए संस्थान धार्मिक समागमों में कथा, प्रवचन के माध्यम से प्रेरित करता है। इसके अलावा आधुनिक संचार माध्यमों खास तौर पर इंटरनेट के प्रचलित सोशल मीडिया जैसे तरीकों से भी जैव कृषि उपयोगिता जानकारी का विस्तार किया जाता है। संस्थान के हितकार खेती प्रकल्प में पैदा ज्यादातर उत्पादों की खपत आश्रम में ही हो जाती है। कुछ उत्पादों के विक्रय के लिए संस्थान में एक पृथक केंद्र स्थापित किया गया है।

गोबर, गोमूत्र आधारित जीव अमृत -

जानकारी के अनुसार संस्थान में लगभग 900 देसी नस्ल की गायों की सेवा की जाती है। इन गायों के गोबर से देसी खाद, जबकि गो-मूत्र से जीव अमृत (जीवामृत) निर्मित किया जाता है। इस मिश्रण में गोमूत्र, गुड़ व गोबर की निर्धारित मात्रा मिलाई जाती है। गौरतलब है कि गोबर के जीवाणु जमीन की उपजाऊ शक्ति बढ़ाने में अति महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
Natural Farming: प्राकृतिक खेती में छिपे जल-जंगल-जमीन संग इंसान की सेहत से जुड़े इतने सारे राज

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जीरो बजट खेती की दीवानी क्यों हुई दुनिया? नुकसान के बाद दुनिया लाभ देख हैरान ! नीति आयोग ने किया गुणगान

भूमण्डलीय ऊष्मीकरण या आम भाषा में ग्लोबल वॉर्मिंग (Global Warming) से हासिल नतीजों के कारण पर्यावरण संरक्षण (Environmental protection), संतुलन व संवर्धन के प्रति संवेदनशील हुई दुनिया में नेट ज़ीरो एमिशन (net zero emission) यानी शुद्ध शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करने के लिए देश नैचुरल फार्मिंग (Natural Farming) यानी प्राकृतिक खेती का रुख कर रहे हैं। प्राकृतिक खेती क्या है? इसमें क्या करना पड़ता है? क्या प्राकृतिक खेती बहुत महंगी है? जानिये इन सवालों के जवाब।

खेत और किसान की जरूरत

इसके लिए यह समझना होगा कि, किसी खेत या किसान के लिए सबसे अधिक जरूरी चीज क्या है? उत्तर है खुराक और स्वास्थ्य देखभाल।मतलब, यदि किसी खेत के लिए जरूरी खुराक यानी उसके पोषक तत्व और पादप संरक्षण सामग्री का प्रबंध प्राकृतिक तरीके से किया जाए, तो उसे ही प्राकृतिक खेती (Natural Farming) कहते हैं।

प्राकृतिक खेती क्या है?

प्राकृतिक खेती, प्रकृति के द्वारा स्वयं के विस्तार के लिए किए जाने वाले प्रबंधों का मानवीय अध्ययन है। इसमें कृषि विज्ञान ने किसानी में उन तरीकों कोे अपनाना श्रेष्यकर समझा है, जिसे प्रकृति खुद अपने संवर्धन के लिए करती है। प्राकृतिक खेती में किसी रासायनिक पदार्धों के अमानक प्रयोग के बजाए, प्रकृति आधारित संवर्धन के तरीके अपनाए जाते हैं। इंटीग्रेटेड फार्मिंग सिस्टम (Integrated Farming System) या एकीकृत कृषि प्रणाली, प्राकृतिक खेती का वह तरीका है, जिसकी मदद से प्रकृति के साथ, प्राकृतिक तरीके से खेती किसानी कर किसान कृषि आय में उल्लेखनीय वृद्धि कर सकता है।


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प्राकृतिक संसाधनों के प्रति देशों की सभ्यता का प्रमाण तय करने वाले नेट ज़ीरो एमिशन (net zero emission) यानी शुद्ध शून्य उत्सर्जन अलार्म, के कारण देशों और उनसे जुड़े किसानों को कृषि के तरीकों में बदलाव करना होगा। COP26 summit, Glasgow, में भारत ने 2070 तक, अपने नेट ज़ीरो एमिशन को शून्य करने का वादा किया है। इसी प्रयास के तहत भारत में केंद्र एवं राज्य सरकार, इंटीग्रेटेड फार्मिंग सिस्टम (Integrated Farming System) को अपनाने के लिए किसानों को प्रेरित कर रही हैं। प्राकृतिक खेती में सिंचाई, सलाह, संसाधन के प्रबंध के लिए किसानों को प्रोत्साहन योजनाओं के जरिए लाभान्वित किया जा रहा है।


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प्राकृतिक खेती के लाभ

प्राकृतिक खेती के लाभों की यदि बात करें, तो इसमें घरेलू संसाधनों से आवश्यक पोषक तत्व और पादप संरक्षण सामग्री तैयार की जा सकती है। किसान इस प्रकृति के साथ वाली किसानी की विधि से कृषि उत्पादन लागत में भारी कटौती कर कृषि उपज से होने वाली साधारण आय को अच्छी-खासी रिटर्न में तब्दील कर सकते हैं। प्राकृतिक खेती से खेत में उर्वरक और अन्य रसायनों की आवश्यकता समाप्त हो जाती है।

प्राकृतिक खेती की जरूरत

एफएओ 2017, खाद्य और कृषि का भविष्य – रुझान और चुनौतियां शीर्षक आधारित रिपोर्ट के अनुसार नीति आयोग (NITI Aayog) ने मानवीय जीवन क्रम से जुड़े कुछ अनुमान, पूर्वानुमान प्रस्तुत किए हैं। नीति आयोग द्वारा प्रस्तुत जानकारी के अनुसार, विश्व की आबादी वर्ष 2050 तक लगभग 10 अरब तक हो जाने का पूर्वानुमान है। मामूली आर्थिक विकास की स्थिति में, इससे कृषि मांग में वर्ष 2013 की मांग की तुलना में 50% तक की वृद्धि होगी। नीति आयोग ने खाद्य उत्पादन विस्तार और आर्थिक विकास से प्राकृतिक पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव पर चिंता जताई है। बीते कुछ सालों में वन आच्छादन और जैव विविधता में आई उल्लेखनीय कमी पर भी आयोग चिंतित है। रिपोर्ट के अनुसार, उच्च इनपुट, संसाधन प्रधान खेती रीति के कारण बड़े पैमाने पर वनों की कटाई, पानी की कमी, मृदा क्षरण और ग्रीनहाउस गैस का उच्च स्तरीय उत्सर्जन होने से पर्यावरण संतुलन प्रभावित हुआ है। वर्तमान में बेमौसम पड़ रही तेज गर्मी, सूखा, बाढ़, आंधी-तूफान जैसी व्याथियों के समाधान के लिए कृषि-पारिस्थितिकी, कृषि-वानिकी, जलवायु-स्मार्ट कृषि और संरक्षण कृषि जैसे ‘समग्र’ दृष्टिकोणों पर देश, सरकार एवं किसानों को मिलकर काम करना होगा। खेती किसानी की दिशा में अब एक समन्वित परिवर्तनकारी प्रक्रिया को अपनाने की जरूरत है।

भविष्य की पीढ़ियों का ख्याल

हमें स्वयं के साथ अपनी आने वाली पीढ़ियों का भी यदि ख्याल रखना है, धरती पर यदि भविष्य की पीढ़ी के लिए जीवन की गुंजाइश शेष छोड़ना है तो इसके लिए प्राकृतिक खेती ही सर्वश्रेष्ठ विचार होगा।


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यह वह विधि है, जिसमें कृषि-पारिस्थितिकी के उपयोग के परिणामस्वरूप भावी पीढ़ियों की जरूरतों से समझौता किए बगैर, बेहतर पैदावार हासिल होती है। एफएओ और अन्य अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने भी प्राकृतिक खेती अपनाने के लिए तमाम सहयोगी योजनाएं जारी की हैं।

प्राकृतिक खेती (Natural Farming) के लाभों को 9 भागों में रखा जा सकता है :

1. उपज में सुधार 2. रासायनिक आदान अनुप्रयोग उन्मूलन 3. उत्पादन की कम लागत से आय में वृद्धि 4. बेहतर स्वास्थ्य सुनिश्चितिकरण 5. पानी की कम खपत 6. पर्यावरण संरक्षण 7. मृदा स्वास्थ्य संरक्षण एवं बहाली 8. पशुधन स्थिरता 9.रोजगार सृजन

नो केमिकल फार्मिंग

प्राकृतिक खेती को रासायनमुक्त खेती ( No Chemical Farming) भी कहा जाता है। इसमें केवल प्राकृतिक आदानों का उपयोग किया जाता है। कृषि-पारिस्थितिकी तंत्र पर आधारित, यह एक विविध कृषि प्रणाली है। इसमें फसलों, पेड़ों और पशुधन एकीकृत रूप से कृषि कार्य में प्रयुक्त होते हैं। इस समन्वित एकीकरण से कार्यात्मक जैव विविधता के सर्वोत्तम उपयोग में किसान को मदद मिलती है।


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प्रकृति आधारित विधि

अपने उद्भव से मौजूद प्रकृति संवर्धन की वह विधि है जिसे मानव ने बाद में पहचान कर अपनी सुविधा के हिसाब से प्राकृतिक खेती का नाम दिया। कृषि की इस प्राचीन पद्धति में भूमि के प्राकृतिक स्वरूप को बनाए रखा जाता है। प्राकृतिक खेती में रासायनिक कीटनाशक का उपयोग वर्जित है। जो तत्व प्रकृति में पाए जाते है, उन्हीं को खेती में कीटनाशक के रूप में अपनाया जाता है। एक तरह से चींटी, चीटे, केंचुए जैसे जीव इस खेती की सफलता का मुख्य आधार होते हैं। जिस तरह प्रकृति बगैर मशीन, फावड़े के अपना संवर्धन करती है ठीक उसी युक्ति का प्रयोग प्राकृतिक खेती में किया जाता है।

ये चार सिद्धांत प्राकृतिक खेती के आधार

प्राकृतिक कृषि के सीधे-साधे चार सिद्धांत हैं, जो किसी को भी आसानी से समझ में आ सकते हैं। ये चार सिद्धांत हैं:
  • हल का उपयोग नहीं, खेत पर जुताई-निंदाई नहीं, बिलकुल प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र की तरह की जाने वाली इस खेती में जुताई, निराई की जरूरत नहीं होती।
  • किसी तरह का कोई रासायनिक उर्वरक या फिर पहले से तैयार की हुई खाद का उपयोग नहीं
  • हल या शाक को नुकसान पहुंचाने वाले किसी औजार द्वारा कोई निंदाई, गुड़ाई नहीं
  • रसायनों पर तो किसी तरह की कोई निर्भरता बिलकुल नहीं।

जीरो बजट खेती (Zero Budget Farming)

अब जिस खेती में निराई गुड़ाई की जरूरत न हो, तो उसे जीरो बजट की खेती ही कहा जा सकता है। प्राकृतिक खेती को ही जीरो बजट खेती भी कहा जाता है। प्राकृतिक खेती में प्रकृति प्रदत्त संसाधनों को लाभकारी बनाने के तरीके निहित हैं। किसी बाहरी कृत्रिम तरीके से निर्मित रासायनिक उत्पाद का उपयोग प्राकृतिक खेती में वर्जित है। जीरो बजट वाली प्राकृतिक खेती में गाय के गोबर एवं गौमूत्र का उपयोग कर भूमि की उर्वरता बढ़ाई जाती है। शून्य उत्पादन लागत की प्राकृतिक खेती पद्धति के लिए अलग से कोई इनपुट खरीदना जरूरी नहीं है। जापानियों द्वारा प्रकाश में लाई गई इस विधि की खेती में पारंपरिक तरीकों के विपरीत केवल 10 प्रतिशत पानी की दरकार होती है।
जानें भारत में पौराणिक काल से की जाने वाली कृषि के बारे में, कमाएं कम खर्च में अधिक मुनाफा

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परमाकल्चर' कृषि को 'कृषि का स्वर्ग' कहा जाए तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है, इसकी वजह फसल, मवेशी, पक्षी, मछलियां, झाड़ी, पेड़ एक पारितंत्र का निर्माण कर देते हैं। न्यूनतम व्यय करके किसानों की आमदनी बढ़ोत्तरी करने की उम्दा रणनीति है। खेती-किसानी में हुए समय समय पर नवीन परिवर्तन देखे जा रहे हैं। इस क्षेत्र में प्रयासरत कृषि वैज्ञानिकों के आविष्कार एवं कुछ किसानों के नवाचार का परिणाम है। वर्तमान में भारत भी कृषि के क्षेत्र में बहुत मजबूती से उभर कर सामने आ रहा है, यहां कृषि संबंधित काफी दिक्कतें तो हैं, साथ ही समाधान भी निकल लिया जाता है। आजकल कृषकों के समक्ष सबसे बड़ी दिक्क्त यह है कि उनको किसी भी फसल के उत्पादन हेतु काफी खर्च करना पड़ता है, जिसकी वजह से किसान समुचित लाभ अर्जित नहीं कर पते हैं। लेकिन किसानों की खेती में दिलचस्पी होने के लिए लाभ अहम भूमिका निभाता है। विदेशी किसानों के समक्ष यह चुनौती नहीं है, क्योंकि विदेशी किसान 'परमाकल्चर' कृषि पर कार्यरत हैं। इस इको-सिस्टम के अंतर्गत पशु, पक्षी, मछली, फसल, झाडियां, पेड़-पौधे आपस में ही एक-दूसरे की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। एक तरह से देखें तो भारत की एकीकृत कृषि प्रणाली के समरूप, जिसके अंतर्गत खेती-किसानी सहित पशु चारा उत्पादन, सिंचाई, बागवानी, वानिकी, पशुपालन, मुर्गी पालन, मछली पालन, खाद निर्माण इत्यादि का कार्य एक स्थाई भूमि पर किया जाता है। इसको स्थाई कृषि अथवा परमाकल्चर के नाम से जाना जाता है। एक बार आरंभ में व्यय करना आवश्यक होता है, उसके उपरांत इस इकोसिस्टम के माध्यम से आपस में प्रत्येक वस्तु की आपूर्ति होती रहती है एवं न्यूनतम व्यय में अत्यधिक पैदावार अर्जित कर सकते हैं।

परमाकल्चर फार्मिंग से हो सकता है अच्छा मुनाफा

यदि किसान चाहे तो स्वयं के खेत को परमाकल्चर में परिवर्तित कर सकता है। लघु किसानों हेतु तो यह उपाय वरदान वरदान के समरूप है। कम भूमि द्वारा बेहद लाभ अर्जित करने हेतु परमाकल्चर द्वारा बेहतरीन लाभ कमाया जा सकता है क्योंकि यह काफी अच्छा विकल्प होता है। इस कृषि पद्धति के अंतर्गत सर्वाधिक ध्यान जल के प्रबंधन एवं मृदा की संरचना को अच्छा बनाने हेतु रहता है। मृदा की संरचना यदि उत्तम रही तो 1 एकड़ भूमि द्वारा भी लाखों में लाभ लिया जा सकता है। परमाकल्चर कृषि आमदनी का बेहतरीन स्त्रोत होने के साथ साथ पर्यावरण संरक्षण एवं जैवविविधता हेतु भी बहुत ज्यादा लाभदायक होती है।
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परमाकल्चर के सबसे बेहतरीन बात यह है, कि इसके लिए किसी प्रकार का अतिरिक्त निवेश नहीं किया जाता है। विशेषरूप से किसानों के समीप गांव में हर तरह के संसाधन उपलब्ध होते हैं। परमाकल्चर की सहायता से किसान को कम व्यय में भिन्न-भिन्न प्रकार का उत्पादन (उत्पादन में विविधता) एवं अधिकाँश मात्रा में उत्पादन अर्जन करने में काफी सहायता प्राप्त होती है। परमाकल्चर को पैसा बचाकर, पैसा कमाने वाला सिस्टम भी कहा जाता है, क्योंकि पशुओं के अवशिष्ट द्वारा खाद-उर्वरक निर्मित किए जाते हैं, जिससे कि रसायनिक उर्वरकों पर किए जाने वाला व्यय बच जाता है। जिससे पशुओं को खेत से बहुत सारी फसलों के अवशेष खाने हेतु मिल जाते हैं, जो दूध के उत्पादन में भूमिका निभाता है। जल का समुचित प्रबंधन करने से सिंचाई हेतु किए जाने वाला व्यय बच जाता है। साथ ही, इसी जल के अंदर मछली पालन भी किया जा सकता है। जिसके हेतु खेत के एक भाग में तालाब निर्मित किया जाता है, जहां बारिश का जल इकत्रित किया जाता है। इस कृषि पद्धति से कोई हानि नहीं होती है। अगर किसान खेत को परमाकल्चर के जरिए सृजन करें तो पर्यावरण सहित किसान की प्रत्येक जरूरत खेत की चारदीवारी में ही पूर्ण हो सकती है।

भारत एक ऐसा देश है जहां परमाकल्चर कृषि पौराणिक काल से की जाती है

वर्तमान के आधुनिक दौर में मशीन, तकनीक एवं विज्ञान द्वारा खेती के ढ़ांचे को परिवर्तित करके रख दिया है, परंतु आज भी भारत ने अपनी परंपरागत विधियों द्वारा विश्वभर में अपना लोहा मनवाने का कार्य किया है। वर्तमान में भी देश कृषि उत्पादन में सबसे आगे है, साथ ही, भारत अनेकों देशों की खाद्य आपूर्ति को पूर्ण करने में अहम भूमिका निभाता है। देश द्वारा उच्च स्तरीय पैमाने पर कृषि खाद्य उत्पादों का निर्यात किया जा रहा है। आज हम भले ही कृषि क्षेत्र में एडवांस रहने हेतु विदेशी कल्चर एवं विधियों का प्रयोग कर रहे हों। परंतु, बहुत से ऐसी चीजें भी मौजूद हैं, जिनको विदेश में रहने वाले लोगों ने भी भारत से प्रेरित होकर आरंभ किया है। उन्हीं में से एक परमाकल्चर भी है। हो सकता है, आपको यह सुनने में अजीब सा अनुभव हो, परंतु भारत के लिए परमाकल्चर किसी नई विधि का का नाम नहीं है। देश में इस कृषि पद्धति को वैदिक काल से ही उपयोग में लिया जा रहा है। क्योंकि भारत ने आरंभ से ही जैव विविधता एवं पर्यावरण संरक्षण का कार्य करते हुए खाद्य आपूर्ति को सुनिश्चित करने में अहम भूमिका निभाई है। हालांकि मध्य के कुछ दशकों में कृषि के क्षेत्र में तीव्रता से बहुत ज्यादा परिवर्तन देखने को मिले हैं, परिणामस्वरूप हम अपने ही महत्त्व को विस्मृत करते जा रहे हैं।
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आपको जानकारी के लिए बतादें कि परमाकल्चर की भाँति कृषि भारत में युगों-युगों से चलती आ रही है। इस कृषि में किसान परंपरागत विधि से उत्पादन करते हैं। पर्यावरण संतुलन हेतु खेत के चारों तरफ वृक्ष लगाए जाते हैं। पशुओं को पाला जाता है, जिनसे खेतों में जुताई की जा सके। इन पशुओं को खेतों से उत्पन्न चारा खिलाया जाता है, बदले में पशु दूध व गोबर प्रदान करते हैं। दूध का किसान अपने व्यक्तिगत कार्य में उपयोग करते हैं अथवा बेचकर धन कमाते हैं वहीं दूसरी तरफ गोबर का उपयोग खेती करने हेतु खाद निर्माण में किया जाता है। इस प्रकार से एक-दूजे की जरूरतें पूर्ण होती रहती हैं, वो भी किसी बाहरी अतिरिक्त व्यय के बिना ही। साथ ही, आपस में संतुलन भी कायम रहता है। आजकल कृषि करने हेतु बीज खरीदने के चलन में वृद्धि हुई है, जो कि जलवायु परिवर्तन के अनुरूप है। जबकि प्राचीन काल में फसल द्वारा बीजों को बचाकर आगामी बुवाई हेतु एकत्रित करके रखा जाता था, यही वजह है, कि पौराणिक काल से ही कृषि एक संतुलन का कार्य था ना कि किसी खर्च का।